ए ख़ुदा आज तेरी ये आजमाइश भी देखते हैं।
सालो पहले बिखर चुके कई रिश्तों को दोबारा जोड़ने की तेरी ये फरमाइश भी देखते हैं।
हर तरफ कहर का सा मंजर है, एक खामोशी सी है, उस खामोशी को चीरते हुए हर घर में कैद मासूमियत की तेरी ये नुमाइश भी देखते हैं।
बेजार सी धरा है और सिमटा हुआ सा आसमा है, इस बिखरे हुए से बेमौसम में हर पल बरसती तेरी ये रिहाइश भी देखते हैं।
कमजोर नहीं है इंसान, ना ही हारा है मुश्किल से, खुद को तलाश करते हुए हर पल खड़ी इंसानियत की तेरी ये पैदाइश भी देखते हैं।
चल इस माहौल में शामिल हर
एक रिश्ते की मासूमियत से बरसती इंसानियत की आजमाइश भी देखते हैं।
द्वारा सुरेखा माली...
आजमाइश
Surekha Mali
(C) All Rights Reserved. Poem Submitted on 05/16/2020
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