तुम लड़खड़ाए थे जब बचपन में,
वो तेरी खुशी थी जिन कंगन में।

हाँ वही जिनके साएं में तुमने बचपन बिताया था,
जो तुम्हारी जवानी के पहले तक स्वर्ग कहलाया था।
और जब बारी आयी की तुम उनकी लाठी बनो,
उनके बुढ़ापे के संगी - साथी बनो।

तुम्हारा ज़हन उनकी रूतबाओं से महरूम हो गया,
तुम्हारा वक़्त अपने ही जहां में कहीं मशगूल हो गया।
तुमने पलट कर भी ना देखा,
और वो स्वर्ग जाने कहां खो गया।।

अरे सुनो! याद हैं वो किस्सा तुमको
गणेश - कार्तिक ने जो दौड़ लगाया था?
मात - पिता का चरण स्वर्ग है,
ये सबको बतलाया था।

ये सारे वृद्ध आश्रम गवाही देती रहती है,
ना राम अब कोई ना श्रवण कुमार,
ये कलयुग हैं! यहां गंगा भी उल्टी बहती है।।

तुम मानो ना मानो
इस जगत का इंसान ना जाने कहीं सोया है,
जहां मात - पिता का स्मरण ना हो
वहां स्वर्ग कहीं तो खोया हैं।
वहां स्वर्ग कहीं तो खोया हैं।।