दूवा हैं कि मेरी अनसुनी दुवाए अब न हो खूबुल
कल तक जो ज़रूरत थी, आज लग रही हैं फ़िजूल

न जाने कितने आस्तानों पे चिराग जलाए
हर दहलीज पे जबी झुकाना न बनजाये अनुकुल

उमीदो और खाईशो कि इन्तिहा नहीं होती
ज़रूरतें पूरी करने न ढूंढने पडे रोज़ नए रसूल

माबूद से न शिकवा न गिला, जो मिला शुकूर हैं
मुराद पूरी करने, किए हर नदी मे उसूल

सिर्फ तरकज़ ए अमल न बन जाए इबादत
जफकश भी ज़िन्दगी मे होजाए मामूल