दूवा हैं कि मेरी अनसुनी दुवाए अब न हो खूबुल
कल तक जो ज़रूरत थी, आज लग रही हैं फ़िजूल
न जाने कितने आस्तानों पे चिराग जलाए
हर दहलीज पे जबी झुकाना न बनजाये अनुकुल
उमीदो और खाईशो कि इन्तिहा नहीं होती
ज़रूरतें पूरी करने न ढूंढने पडे रोज़ नए रसूल
माबूद से न शिकवा न गिला, जो मिला शुकूर हैं
मुराद पूरी करने, किए हर नदी मे उसूल
सिर्फ तरकज़ ए अमल न बन जाए इबादत
जफकश भी ज़िन्दगी मे होजाए मामूल
कल कि दूवा आज न हो खूबूल
Rafiq Pasha
(C) All Rights Reserved. Poem Submitted on 06/24/2020
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