ज़िन्दगी के दौड़ मे, छूट गए वह लम्हे
मैं उन लम्हो को अब, फिर जीना चाहता हूँ
लब्बो तक आकर न जाने कितने पियले छूट गए
आज मैं उन पियालो से पीना चाहता हूँ
बातिन क्या है , मख़फ़ी क्या है
हर ज़ख्म को अब मैं सीना चहता हूँ
ज़िन्दगी मैं तुझ से अब क्या मांगू
मैं मौत से चन्द पल छीनना चहता हूँ
अब ज़िन्दगी के हर शै का मतलब समझ गया
इस लिए चुपके से सब कुछ पीना चहता हूँ
पता न चले कब सुबह हो कब शाम ढले
हर दिन ऐसा हो मैं वह महीना चहता हूँ
कितने भी रंजीशे हों , इस दुनिया में
सिर्फ मुस्कुराता चैहरा नज़र आए , ऐसा आईना चहता हूँ
आइना
Rafiq Pasha
(C) All Rights Reserved. Poem Submitted on 07/12/2020
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