मैं नहीं जानता इश्क़ क्या है
मैं नहीं जानता इश्क़ क्या है
अगर तेरे कांधे पे सर रख तारों के बीच खुद को देखूं भी ना
तो मैं नहीं जानता इश्क़ क्या है
मै तो बस ये जानता हूं कि उस आसमान में बसे उन तारों कि रोशनी तेरी आंखों में बसी है
और उस रोशनी को देख मेरे दिल का एक नया सवेरा होता है
और अगर उस सवेरे अपनी आंखों को मिच तेरा हाथ पकड़ तुझे अपना बनाऊं भी ना
तो मैं नहीं जनता इश्क़ क्या है
अगर तेरी जिस्म को बेपर्दा करने से पहले तेरी रूह को छुवुं भी ना
अगर तेरी जिस्म से लिपटने के बाद तेरी जुफें सावारूं भी ना
तो मैं नहीं जनता इश्क़ क्या है
और अगर तुझ संग हमबिस्तर हो कर भी पहले की तरह तेरे माथे को चूमू नहीं
तो मै नहीं जानता इश्क़ क्या है
मैं तो बस ये जानता हूं कि तेरी आबरू की कदर कर तुझे संभाल कर रखूं
और वक़्त आने पे तुझे अपने ही सीने से लगा तुझे प्यार भी मैं ही करूं
अगर तेरे कपड़ों को संभाल तेरी आबरू की कद्र ना कर सका
और तेरे संग रास्तों पे चलके मंज़िल की फ़िक्र भी मैं ही करूं
तो मै नहीं जानता इश्क़ क्या है
तो में नहीं जानता इश्क़ क्या है।
मैं नहीं जानता इश्क़ क्या है
Nir Baghwar
(C) All Rights Reserved. Poem Submitted on 05/24/2020
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