(पलायन करते मजदूरों का दर्द)........
....कौन कहता है रंगीन है दुनियां तेरी
स्याह रंगों से भरपूर हैं दुनियां तेरी
ये भूख कितनों के अरमानों पर भारी पड़ी
दर्द और भूख की लाठी यहाँ कितनों को पड़ी...
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ऐ दिल कहीं और ले चल मुझे
आदमी को आदमी की नजर लग गई
आसमां पर चमकते हैं लाखों सितारे
फिर भी धरा का अंधेरा नहीं कम हुआ
बेबसी का अंधेरा है इतना घना
दिन में जलता रहा काम करता रहा
अपनी किस्मत पसीने से लिखता रहा
शाम आई तो ये सबक दे गई
कल की रोटी भी आज कम पड़ गई
ऐ दिल कहीं और ले चल मुझे
आदमी को आदमी की नजर लग गई
✍ एकता उपाध्याय
(गोरखपुर)
कविताएँ