प्रिये, तुम्हारे अधरों पर
क्यूँ शब्द ठहर जाते हैं आज
नाम मेरा उच्चारित करने में
होता संकोच है क्यूँ

क्षीण नहीं यह सूत्र सखे,
हैं बंधे हुए हम तुम जिसमें
थमा दिया है हमें सृष्टि ने
एक दूजे के हाथों में

पल्लव सी, पुष्षों सी पलकों की
पावन परिधि के पीछे
छुपे हुए उन स्वप्नों को
तुम ही बोलो क्या परिभाषा दूँ

साधक हूँ मैं एक तुम्हारे सम्मुख
खड़ा हुआ कब से
साध्य तुम्हीं हो सत्य तुम्हीं
दो अंजलि भर अपनत्व मुझे