वो लम्हे ज़िंदगी के बेहतरीं थे
जवाँ हम और वो बेहद हसीं थे
यहाँ थीं कुल बहारें ही बहारें
ख़िजांओं के कहीं मंज़र नहीं थे
ये जो क़दमों तले रौंदे गए हैं
ये ग़ुंचे फूल तब ताज़ातरीं थे
यहाँ हैं आज मीनारो-इमारत
हमारे घर गली कूचे यहीं थे
यक़ीनन पास धन दौलत नहीं थी
मगर दिल में भी इतने ग़म नहीं थे
गई आवारगी तो होश आया
कहीं थीं मंज़िलें और हम कहीं थे
थे नादाँ जान जाने तक न माने
वही थे हमलावर जो जाँनशीं थे
जाँनशीं
C K Rawat
(C) All Rights Reserved. Poem Submitted on 09/04/2019
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Surya prakash rawat: Wah....bhai.....seedhi saaf baaton my sab baya kar diya.... Ye shayari shabad or matlab my badi achchi lagi.......
Ashok sharma: बहुत खूबसूरती से जिंदगी का फ़लसफ़ा बयान कर दिया । बधाई ।
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