उलझे हुए हैं इस तरह दफ़्तर की फ़िक्र में
कि घर से दूर हो गए हैं घर की फ़िक्र में

ऐसा है अब कि नींद ना आए तमाम रात
पाँवों की फ़िक्र में कभी चादर की फ़िक्र में

घर से निकल पड़े मगर रुकते हुए चले
राहों के शक़ में तो कभी रहबर की फ़िक्र में

अपनी ही ख़्वाहिशों के तले डूब रहे हैं
साहिल की क़द्र में न समुन्दर की फ़िक्र में

कुछ यूँ फँसे हैं अपनी ही नज़रों के जाल में
मंज़िल को भूल बैठे हैं मंज़र की फ़िक्र में

खेलो नहीं ये दुनियावी बेमानी खेल हैं
अंदर से टूट जाओगे बाहर की फ़िक्र में