वो मुत्तफ़िक़ हुई न कभी मेरे ख़्वाब से
कि ज़िंदगी चलती रही अपने हिसाब से

क्या क्या पढ़ा था भूल गए इतना याद है
ख़ुशबू बड़ी आती थी हमें हर किताब से

फ़ुर्सत ही न मिली कभी जिसको शराब से
हमने भी की उम्मीद किस ख़ानाख़राब से

ऐसी अदाओं से वो आ कर रूबरू हुए
कि कह न सके चाह कर भी कुछ जनाब से

तब तक थे बेख़याल हम उल्फ़त के जाल से
टकराए ना थे जब तलक उनके शबाब से