किंचीत इसलिये हीं छलक परा,
सिंचीत था जो मधु का प्याला,
क्या होगा अब कहने से भी शाकी,
तब ही तो थमा देती मुझको हाला,
छलका भी है,तो पी लेने दे,
फिर तो कहना ना,छलका है प्याला!!
मतबालो का अधीकार नही यह,
मधुशाला उसी का अर्जीत है,
पीना भी तो जन जन का कर्म ही है,
फिर क्यों कर कुछ को यह वर्जीत है,
कहने का क्या,समझा देती हमको,
फिर तो ना कहना,छलका है प्याला!!
क्यों कर कहता है,वो सप्रमान देख,
मयखानो पर किंचीत अधीकार है यह,
सायद तो इसी कारण स्वमान उद्धेलीत है,
समता के जागीरो पर प्रतिकार है यह,
अपमान सही,शत्य दीखा देती हमको,
फिर तो ना कहना,छलका है प्याला!!
समान भाव पर सिंचीत करना काम नही,
जो कर्त्य है,समय छीतीज पे उसका नाम नही,
कोई तो कर बैठेगा,सिंचीत करने की छीन्न भीन्न प्रथा,
मै भी तो हूं,मै हूं,पर यह है अभिमान नही,
जो आमुर्त है,वही दिखला देती मुझको,
फिर तो ना कहना,छलका है प्याला!!
किंचीत इसिलिये छलक परा,
Madanmohan Thakur
(C) All Rights Reserved. Poem Submitted on 07/05/2019
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