आज से 150 वर्ष पूर्व
भारत की पावन भूमि पर
एक प्रखर प्रकाशपुंज ने जन्म लिया था और एक दीर्घ कालखण्ड तक
देश की जनचेतना को उज्ज्वल किया था।
समयांतर में
अंधकार के कुछ समर्थकों ने
अज्ञानता के कतिपय प्रवर्तकों ने
उस दिव्य दीप को बुझाने की कुचेष्टा की
किन्तु विचित्र महिमा है उस अदृश्य सृष्टा की
कि वो ज्योतिपुंज बुझना तो क्या था
आज भी अप्रतिम सूर्य की भांति मुक्ताकाश पर छाया हुआ है
और नित्य, निरन्तर हमारी ओर
अपनी सुरधाराएं प्रवाहित कर रहा है।
आएं फिर दोहराएं क्या हैं
ये जीवन धाराएं क्या हैं
सत्य, अहिंसा और सादगी
प्रेम, शान्ति एवं भाईचारा
सामाजिक सौहार्द्र सनातन
आंतरिक व बाह्य स्वच्छता
सर्व समानता और उदारता
दया, सेवा व सहनशीलता
सहिष्णुता, संवेदनशीलता
कर्मकाण्ड, कुरीति निवारण
धूम्र व मद्यपान निराकरण
अस्पृश्यता का पूर्ण उन्मूलन
स्वास्थ्य व शिक्षा संवर्द्धन
शान्त आक्रोश
आत्म संतोष
सामाजिक न्याय व स्वाभिमान
सबको आदर व सम्मान
निर्भीकता, दृढ़ आत्मिक शक्ति
लोभ मोह से सदा विरक्ति
विश्व शान्ति, विश्व बंधुत्व
विश्व कल्याण, विश्व अस्तित्व ।
किन्तु, आज स्थिति यह है कि
मनुष्य आत्मकेंद्रित, आत्ममुग्ध है,
अकारण नहीं कि मन अत्यधिक क्षुब्ध है।
प्रश्न उठता है कि
भयंकर अंधकार में खोया मानव
क्या उस जीवन-ज्योति को अंगीकार कर पाएगा?
क्या वो कभी इस अंधमहासागर को पार कर पाएगा?
महात्मा गांधी
C K Rawat
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Subhash Lather: Excellent poem. Luckily I am dealing in celebrations of 150th birth anniversary of this great. Soul.
Ashok shsrma: एक बहुत सुंदर रचना । आज के युग में गांधीजी के विचारों की उपयोगिता को समझना पड़ेगा और जिंदगी में अपनाना भी पड़ेगा तभी एक सुंदर विश्व की कल्पना की जा सकती है ।
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