खुद से ना मिल पाई ,
कभी बेटी, बहू ,मां ,पत्नी ही कहलाई
पहचान ही अंधेरे में रही,
कभी फेरों में तो कभी पैरों में रही।

मंजिलें जो उसने अपनी बनाई,
रिश्तो की गांठ में जकड़ आई,
आजाद जीना चाहती है ।

हर पल वजूद खो आती है।

सवाल यह है उड़ान भरे भी तो कैसे,
सब नाम में उसका नाम गुम हो जैसे।

अब जो खुद से मिलती है,
तो सिर्फ बेटी, बहू, मां ,पत्नी ही रहती है।।

शिल्पा सिंधी