याद है तुमको प्रिये, जब हम मिले थे एक बार
सघन उपवन में सुशोभित उस आम्रतरु के तले
मंद मृदुल थी हवा बह रही उस अति कोमल संध्या में
दूर क्षितिज से उतरी थी जो धीमे से शरमाती सी
उपवन के लहराते तरुवर गाते थे हर्षित हो कर
शिशिर मध्य यूँ नव वसंत का आगमन हो जाने से
ऊपर था वो वृक्ष भाग्य का धनी और सुंदरतम भी
नीचे थे वो सुमन सुकोमल, धन्य हुए जो तत्पश्चात
स्पर्श करता केश तुम्हारे गिरा था एक पत्ता तभी
और कल्पना की थी मैंने कुछ वैसा कर जाने की
चारु, चंचल, अति चपल चक्षु थे उस बेला में प्रिये, तुम्हारे
देख यह सम्मुख दृश्य मेरा मन भी चंचल हो जाता था
कुछ भी हो सब लगता था जैसे एक सुंदर सपना हो
देख रहे थे हम तुम जिसको एक दूजे के नयनों में
स्मरण हो आता मुझे है यदा कदा एकांत में
वन का, वृक्ष का, पुष्प, पवन का और सबसे बढ़ कर तुम्हारा
स्मृति पटल पर अंकित है एक अमिट छाप बीते कल की
कैसे भुला पाऊँ युगों तक बीते हुए युगों को मैं
प्रिये, तुम्हें भी याद होगी वो अपनी स्वर्णिम संध्या
मेरी भांति तुम्हें भी कुछ भूलता तो ना होगा ना