अब नहीं हमको ज़माने के सहारे चाहिए
अपनी परवाज़ों के दम पे चाँद तारे चाहिए
देख कर नज़रें जिन्हें छलनी हुई जाती रहीं
हमको अब तब्दील वो सारे नज़ारे चाहिए
सदियों से सूखी ज़मीं की प्यास न बुझ पाएगी
बूँदाबाँदी अब नहीं अब मूसलाधारे चाहिए
अब सहा जाता नहीं यूँ ही बहा जाता नहीं
ज़िंदगी भंवरों में गुज़री अब किनारे चाहिए
छीन कर जिनको यहाँ की सल्तनत चलती रही
हमको बाइज़्ज़त हमारे हक़ वो सारे चाहिए
अब लकीरों के परे हमसे रहा जाता नहीं
हाशिए मिटवाएँ हमको मुख्यधारे चाहिए