शीत ऋतु, कुहरे, जाड़े का
सन्नाटे का हुआ अंत ।
प्रकृति करती श्रृंगार अरे !
देखो आया प्यारा वसंत ।।

देखा प्रकृति को आज सुबह,
चल रही पवन थी मंद-मंद ।
सरसों के खेतों से उठकर ,
चहुँ ओर उड़ रही थी सुगंध ।।

खिले हुए थे पुष्प और –
मनभावन-सा वो कुंजन था ।
जो छूता था हृदय पट को,
तितली, भौरों का गुंजन था ।।

ऐसा लगता, मानो प्रकृति,
श्रृंगार कर रही थी अपना ।
'बस आने वाले हैं प्रियतम',
आया हो भोर उसे सपना ।।

उस समय स्मरण हो आया –
'कुछ दिनों पूर्व सन्नाटा था'।
लगता जाड़ों में विरह पूर्ण –
हो प्रकृति ने पल-पल काटा था।।

वो मुरझाए से हुए पात ,
डाली पुष्पों से खाली थी ।
थे धूम्र, कुहासा,नीरसता ,
वो रात विरहिणी वाली थी ।।

लेकिन शायद जब भोर हुई,
तब देखा प्रियतम का सपना ।
तब विरहाग्नि से निकल, प्रकृति –
श्रृंगार लगी करने अपना ।।

वर्षण से उसने स्नान किया ,
फ़िर तभी ओढ़ ली हरियाली ।
अपने केशों में पुष्प लगा ,
अति सुन्दर बनकर मतवाली ।।

जब उड़ी सुगंधि प्रकृति की ,
उड़ पहुँची, बैठा जिधर कंत ।
अब उसके भी अंतर्मन में ,
विरहाग्नि उत्तेजित, ज्वलन्त ।।

जब पहुँचा वो उससे मिलने ,
सब दुःखद दिनों का हुआ अंत ।
प्रेयसी प्रकृति से मिलने को –
आ पहुँचा है प्रेमी वसंत ।।

— सूर्या