छुट्टी के मजेले

ज़िन्दगी का एक दिन कम होता हैं
छुट्टी का एक दिन खरीब होता हैं
ज़िन्दगी किस्से नहीं हैं प्यारी
यह बस अपना अपना नसीब होता हैं

आँखों में आसु , दिलो में अरमान
मुट्टी मे खाक , निगाहो में आसमान
न अपने कुछ कह सके नस पराए
हर निगह यह पुछे ' तू लौट के कब आए ‘
ये गालियाँ मुझे सवाल कर रहीं हैं
हर एक के आँख से गंगा क्यो बह रही हैं
हर पल बरस के सम्मान लगाने लगा
अपने खनंदो कि तरह आकाश भी झुकने लगा
हर बेवतन प्यार का गरीब होता हैं
छुट्टी का एक दिन खरीब होता हैं

खत में अपनी तन्हाई का ज़िक्र करू
या दमन छुड़ाती जवानी कि फ़िक्र करू
कागज़ पे लिखे लफ्ज़ आंसू से मीठ जाते हैं
गीले खत अपने लोग कैसे पढ़ पाते हैं
इंतेज़ार रहता हैं हर पल फ़ोन का
जिस दिन चिट्टी न आए , दिन हैं मौन का
जब घर बात करू , दिल वही रह जाता हैं
ज़बान से कम, आँखो से सब बह जाता हैं
न ख़ुशी में , न गम मैं शरीक होता हैं
छुट्टी का एक दिन खरीब होता हैं

यहाँ आना चक्रवीहु कि तहर होता हैं
कल के उम्मीद मे आदमी सारी उम्रः खोता हैं
यहीं अरमानो में दिन निकल जाते हैं
हालत देखकर पत्थर भी पिगल जाते हैं
जब जब हम अपने गॉव छुट्टी पर जाए
कब लौट रहे हो , सब ये याद दिलाए
अपना देश क्यो परदेश सा लगता हैं
हर कोई हमे गैर सा सुलूक़ करता हैं
आलम मत पुछो जब छुट्टी ख़तम होती हैं
यहाँ आसमान क्या ज़मीन भी रोती हैं
वक़्त के दलदल में आदमी खो जाता हैं
ख्वाबो कि चादर ओडकर सो जाता हैं
धन पाकर भी कोई बदनसीब होता हैं
छुट्टी का एक दिन खरीब होता हैं

Rafiq Pasha
(C) All Rights Reserved. Poem Submitted on 06/12/2020 The copyright of the poems published here are belong to their poets. Internetpoem.com is a non-profit poetry portal. All information in here has been published only for educational and informational purposes.