अपनी समझे थे मगर निकली पराई ज़िंदगी

अपनी समझे थे मगर निकली पराई ज़िंदगी
जाने किस मिट्टी की थी क़ाबू न आई ज़िंदगी

तयशुदा था लड़खड़ाना और गिरना एक दिन
आगे था कुआँ कभी पीछे थी खाई ज़िंदगी

यूँ ही तो छोड़ा न हमने बीच रस्ते में तुझे
जब तलक हम से निभी हमने निभाई ज़िंदगी

हमसे सब अच्छा बुरा क्या क्या न करवाती रही
ले भुगत अब शौक़ से यह जगहंसाई ज़िंदगी

ज़िंदगी को इस तरह कुछ हमने ज़ाया कर दिया
जैसे कि ख़ैरात में थी हमने पाई ज़िंदगी

ख़्वाब की मानिंद बनना ख़्वाब जैसा टूटना
सिर्फ़ इतनी सी तो है तेरी सचाई ज़िंदगी

C K Rawat
(C) All Rights Reserved. Poem Submitted on 08/25/2019 The copyright of the poems published here are belong to their poets. Internetpoem.com is a non-profit poetry portal. All information in here has been published only for educational and informational purposes.