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कुछ मेरी सुनते कुछ अपनी भी सुनाते जाते

Ahmad Ali Barqi Azmi

ग़ज़ल
डॉ. अहमद अली बर्क़ी आज़मी
कुछ मेरी सुनते कुछ अपनी भी सुनाते जाते
वक़्ते रुखसत तो न यूँ मुझको रुलाते जाते
वह सबब तरके तअल्लुक़ का बताते जाते
है जो दस्तूर ज़माने का निभाते जाते
होता देरीना मोहब्बत का अगर पासो लिहाज़
वह भी मेरी ही तरह अश्क़ बहाते जाते
क्या ज़रुरत थी मुझे छोड़ के जाने की उन्हें
उनको जाना ही अगर था तो बताते जाते
क्या मिला मेरी तमन्नाओं का खून कर के उन्हें
मेरा दिल रखने की खातिर ही हंसाते जाते
नाखुदा कश्ती ए दिल के थे तो मंझधार में वह
मौजे तूफ़ाने हवादिस से बचाते जाते
मुड़ के देखा भी न क्या मुझ पे गुज़रती होगी
मुझ से जाते हुए नज़रें तो मिलते जाते
सब्ज़ बाज़ ऐसा दिखाने की ज़रुरत क्या थी
ऐशो इशरत के न यूँ ख्वाब दिखाते जाते
मेरा यह सोज़ ए दुरून मार न डेल मुझको
खूने दिल मेरा न इस तरह जलाते जाते
तीरा व तार है यह खाना ए दिल उनके बग़ैर
शम्ये उम्मीद न यूँ मेरी बुझाते जाते
गिर रहा था तो उठाते न उसे वह लेकिन
अपनी नज़रों से न बर्क़ी को गिराते जाते


(C) Ahmad Ali Barqi Azmi
10/13/2019


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