खुदा अगर

फूलों को नहीं,
काँटो को अब चूमुंगा में।

पानी को नहीं,
अश्कों को अब पियूँगा में।

खुसी में नहीं,
गम में अब हसूंगा में।

मोहब्बत नहीं,
नफरत अब करूँगा में।

राहा तो कुछ नहीं,
फिर भी अब पूछूंगा में।

खुदा अगर इश्क़ का मंज़िल सिर्फ गम था,
तो क्यों इतना लुत्फ़ में सुरू हुआ।

क्यों मोड़ पे आके रुका में,
क्यों आगे का रास्ता भुला में,
क्यों चलते चलते थक गया में,
क्यों कुछ खोने का दर्द पाया में।

खुदा अगर इश्क़ का मंज़िल सिर्फ गम था,
तो क्यों इतना लुत्फ़ में सुरू हुआ।

काहाँ गुम होगयी तू बितेहुए लम्हों के तरह,
काहाँ ढूंढू में तुझे सरफिरा मुसाफ़िर के तरह।

तेरी नैनों की लफ़्ज़ों से दिल वाक़िफ़ हो रहा था,
तेरी मुस्कुराने की वजह में भी बन रहा था,

इबादत करता था में तुझे,
फिर क्यों भूल गयी तू मुझे।

और कभी लौटके न आई,
मेरा मन्नत का इमारत यूँ तोड़कर चली गयी।

क्यों ! क्यों ! क्यों !
तू ऐसी कर गयी,
अधूरे अरमानों के बारिशों में यूँ भिगाकर चली गयी।

तो फिर.....
खुदा अगर इश्क़ का मंज़िल सिर्फ गम था,
तो क्यों इतना लुत्फ़ में सुरू हुआ।

Satyaprajna Das
(C) All Rights Reserved. Poem Submitted on 06/27/2020 The copyright of the poems published here are belong to their poets. Internetpoem.com is a non-profit poetry portal. All information in here has been published only for educational and informational purposes.