मुशाफिर *
भटक गए है ,,
जो ,,
सफ़र - ए - इम्तिहान में,,,,
न देर हुई है ,,,
मुसाफ़िर,,,,
जिंदगी की राह में,,,,।
फ़ैसले और फासले ,,
अक्सर आएंगे,,
ज़मीर को तेरे,,,
बेशक डगमगाएन्गे,,,
डर गया तो मंजिल हारी,,,,
काटे तो होंगे राह में,,,,।
जी हुजूरी का जमाना है,,
तो क्या हुआ,,,
तू भी करले,,,
आज नंगे पांव ही सही,,,,
थोड़ा और चल ले,,,
तू भी होगा कभी,,,
फूलों के साये में,,,,,
गरुर होगा तब,,,
हुक़ूमत भी तेरी होगी,,,
चंद रोज़ ही सही ,,,
महफिलें भी तेरी होगी,,,
तब न इतराना ,,,,
जिंदगी की राह में,,,।
कुछ पल दे जाते है,,,
कड़ी धूप की किरणें,,
कुछ पल के लिए ,,,,ही सही,,,
बरखा बादल भी आएंगे,,,
न लौट आना वापस घबराकर ,,
ये सब तुझे ,,छाणिक डराएंगे,,,
भटक गए है ,,
जो ,,
सफ़र - ए - इम्तिहान में,,,,
सतीश सेन बालाघाटी
7024950018,
9424390526 wtsup
Satish Sen Balaghati
(C) All Rights Reserved. Poem Submitted on 05/24/2019
The copyright of the poems published here are belong to their poets.
Internetpoem.com is a non-profit poetry portal. All information in here has been published only for educational and informational purposes.