यादों का बोझ

शजर यादों के बढ़ गएं हैं अब वो बोझ लगते हैं,
मैं कोई शाख़ काट दूं तो दिल को इत्मिनान हो।
नहीं तो टूट जांऊगा मैं ख़ुद अपने ही बोझ से,
अगर टूटा, खुदा जाने यह मेरा इम्तिहान हो।
जो काटूँ कौन सी काटूँ  मैं शाख़ तेरी यादों की,
बिना यादों के तेरी, दिल तो इक सहमा परिंदा है।
मैं गाऊँ कौन सा नग़मा कि हर लम्हाँ ठहर जाए,
लगे सबको कि बिन तेरे परिंदा कैसे ज़िंदा है।
दूरीयां घट गईं लेकिन फ़ासले अब भी बाक़ी हैं,
दिलों की जुस्तजु शायद ही कभी हम जुबान हो।
शजर यादों के बढ़ गएं हैं अब वो बोझ लगते हैं,
मैं कोई शाख़ काट दूं तो दिल को इत्मिनान हो।

Sanjay Gupta
(C) All Rights Reserved. Poem Submitted on 06/12/2023 The copyright of the poems published here are belong to their poets. Internetpoem.com is a non-profit poetry portal. All information in here has been published only for educational and informational purposes.