रणबांकुरे

सरफ़रोशी का जहाँ भरते हैं दम रणबांकुरे
दिल की चर्चाएं वहाँ करते हैं कम रणबांकुरे

जब चलेंगे ख़ुद-ब-ख़ुद ही रास्ते खुल जाएंगे
देर है तो बस बढ़ाने की क़दम रणबांकुरे

चल पड़े तो फिर पलट कर देखते पीछे नहीं
रोकते हैं फिर नहीं अपने क़दम रणबांकुरे

जब तलक न मंज़िलें पा जाएं थक रुकते नहीं
भूख का न प्यास का करते हैं ग़म रणबांकुरे

जान की बाज़ी लगाना रोज़ का ही खेल है
जान खो देने का कुछ करते न ग़म रणबांकुरे

सोचते हैं दुश्मनों का सर क़लम करने के बाद
गोलियाँ चलतीं न गर चलती क़लम रणबांकुरे

दुश्मनों के साथ अब कैसा रहम रणबांकुरे
लौटना अब करके क़िस्सा ही ख़तम रणबांकुरे

क्या सही है क्या ग़लत ये अर्श वाले जानते
कर जो तेरा फ़र्ज़ है तेरा करम रणबांकुरे

C K Rawat
(C) All Rights Reserved. Poem Submitted on 09/05/2019 The copyright of the poems published here are belong to their poets. Internetpoem.com is a non-profit poetry portal. All information in here has been published only for educational and informational purposes.